Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


गबन
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क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां वह नए जीवन का सूत्रपात कर सके, जहां वह संसार से अलग-थलग सबसे मुंह मोड़कर अपना जीवन काट सके। जहां वह इस तरह छिप जाय कि पुलिस उसका पता न पा सके। गंगा की गोद के सिवा ऐसी जगह और कहां थी। अगर जीवित रहा, तो महीनेदो महीने में अवश्य ही पकड़ लिया जाएगा। उस समय उसकी क्या दशा होगी,वह हथकडियां और बेडियां पहने अदालत में खडाहोगा। सिपाहियों का एक दल उसके ऊपर सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंगे। जालपा भी जाएगी। रतन भी जाएगी। उसके पिता, संबंधी, मित्र, अपने-पराए,सभी भिन्न-भिन्न भावों से उसकी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे। नहीं, वह अपनी मिट्टी यों न ख़राब करेगा, न करेगा। इससे कहीं अच्छा है, कि वह डूब मरे! मगर फिर ख़याल आया कि जालपा किसकी होकर रहेगी! हाय, मैं अपने साथ उसे भी ले डूबा! बाबूजी और अम्मांजी तो रो-धोकर सब्र कर लेंगे, पर उसकी रक्षा कौन करेगा- क्या वह छिपकर नहीं रह सकता- क्या शहर से दूर किसी छोटे-से गांव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता- संभव है, कभी जालपा को उस पर दया आए, उसके अपराधों को क्षमा कर दे। संभव है, उसके पास धन भी हो जाए, पर यह असंभव है कि वह उसके सामने आंखें सीधी कर सके। न जाने इस समय उसकी क्या दशा होगी! शायद मेरे पत्र का आशय समझ गई हो शायद परिस्थिति का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो शायद उसने अम्मां को मेरा पत्र दिखाया हो और दोनों घबराई हुई मुझे खोज रही हों। शायद पिताजी को बुलाने के लिए लड़कों को भेजा गया हो चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी। कहीं कोई इधर भी न आता हो कदाचित मौत को देखकर भी वह इस समय इतना भयभीत न होता, जितना किसी परिचित को देखकर। आगे-पीछे चौकन्नी आंखों से ताकता हुआ, वह उस जलती हुई धूप में चला जा रहा था,कुछ ख़बर न थी, किधरब सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे, मैं इतनी दूर निकल आया? रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानो उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जाएगा, मगर जेब में रूपये न थे। उंगली में अंगूठी पड़ी हुई थी। उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा, 'कहीं यह अंगूठी बिकवा सकते हो?एक रूपया तुम्हें दूंगा।

मुझे गाड़ी में जाना है। रूपये लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं फिर गए। फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बडा भारी नुकसान हो जाएगा।'
जमादार ने उसे सिर से पांव तक देखा, अंगूठी ली और स्टेशन के अंदर चला गया। रमा टिकट-घर के सामने टहलने लगा। आंखें उसकी ओर लगी हुई थीं। दस मिनट गुज़र गए और जमादार का कहीं पता नहीं। अंगूठी लेकर कहीं गायब तो नहीं हो जाएगा! स्टेशन के अंदर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा, उसने पूछा, 'जमादार का नाम क्या है?'रमा ने ज़बान दांतों से काट ली।

नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाए क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ गया, जमादार ने चरका दिया। बिना टिकट लिये ही गाड़ी में आ बैठा मन में निश्चय कर लिया, साफ कह दूंगा मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पडा, तो यहां से दस पांच कोस तो चला ही जाऊंगा। गाड़ी चल दी, उस वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय, न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी होगा या नहीं। फिर यह सुख के दिन कहां मिलेंगे। यह दिन तो गए, हमेशा के लिए गए। इसी तरह सारी दुनिया से मुंह छिपाए, वह एक दिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे। केवल थोड़े-से संकोच के कारण उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू ही से, जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दी होती, तो आज उसे मुंह पर कालिख लगाकर क्यों भागना पड़ता। मगर कहता कैसे, वह अपने को अभागिनी न समझने लगती- कुछ न सही, कुछ दिन तो उसने जालपा को सुखी रक्खा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफी था। अभी गाड़ी चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का दरवाज़ा खुला,और टिकट बाबू अंदर आए। रमा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जाएगा। इतने आदमियों के सामने उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी की गति तीव्र होती जाती थी। आख़िर बला सिर पर आ ही गई। टिकट बाबू ने पूछा, 'आपका टिकट?'

रमा ने ज़रा सावधान होकर कहा, 'मेरा टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रूपये दिए थे। न जाने किधर निकल गया।'
टिकट बाबू को यकीन न आया, बोला, 'मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहां जा रहे हैं?'
रमानाथ-'सफर तो बडी दूर का है, कलकत्ता तक जाना है।'
टिकट बाबू-'आगे के स्टेशन पर टिकट ले लीजिएगा। '
रमानाथ-'यही तो मुश्किल है। मेरे पास पचास का नोट था। खिड़की पर बडी भीड़ थी। मैंने नोट उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया, पर वह ऐसा ग़ायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हों। लंबा-लंबा चेचकरू आदमी है।'
टिकट बाबू-'इस विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते है? मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।
रमा ने विनीत भाव से कहा, 'भाई साहब, आपसे क्या छिपाऊं। मेरे पास और रूपये नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब समझें, करें।'
टिकट बाबू-'मुझे अफसोस है, बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूं।'
कमरे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफूसी करने लगे। तीसरा दर्जा था,अधिकांश मजदूर बैठे हुए थे, जो मजूरी की टोह में पूरब जा रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भांति अपमानित होते देखकर आनंद पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्का देकर उतार दिया होता, तो और भी ख़ुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी झेंप न हुई थी। चुपचाप सिर झुकाए खडाथा। अभी तो जीवन की इस नई यात्रा का आरंभ हुआ है। न जाने आगे क्या? क्या विपत्तियां झेलनी पडेंगी। किस-किसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी में आया,गाड़ी से यद पड़ूं, इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आंखें भर आइ, उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा। सहसा एक बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा, 'कलकत्ता में कहां जाओगे, बाबूजी?'
रमा ने समझा, वह गंवार मुझे बना रहा है, झुंझलाकर बोला,'तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊंगा!'
बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ भी ध्यान न दिया, बोला, 'मैं भी वहीं चलूंगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायगा। फिर धीरे से बोला,किराए के रूपये मुझसे ले लो, वहां दे देना।'
अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई साठ-सत्तर साल का बूढ़ा घुला हुआ आदमी था। मांस तो क्या हडिडयां तक फूल गई थीं। मूंछ और सिर के बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी-सी बद्दची के सिवा उसके पास कोई असबाब भी न था। रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला, 'आप हाबडे ही उतरेंगे या और कहीं जाएंगे?'
रमा ने एहसान के भार से दबकर कहा, 'बाबा, आगे मैं उतर पड़ूंगा। रूपये का कोई बंदोबस्त करके फिर आऊंगा। '
बूढ़ा-'तुम्हें कितने रूपये चाहिए, मैं भी तो वहीं चल रहा हूं। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दस-पांच रूपये लेकर भाग जाओगे। कहां घर है?'
रमानाथ-'यहीं, प्रयाग ही में रहता हूं।'
बूढ़े ने भक्ति के भाव से कहा,मान्य है प्रयाग, धन्य है! मैं भी त्रिवेणी का स्नान करके आ रहा हूं, सचमुच देवताओं की पुरी है। तो कै रूपये निकालूं?'
रमा ने सकुचाते हुए कहा, 'मैं चलते ही चलते रूपया न दे सकूंगा, यह समझ लो।'
बूढ़े ने सरल भाव से कहा, 'अरे बाबूजी, मेरे दस-पांच रूपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग के पण्डे यात्रियों को बिना लिखाए -पढ़ाए रूपये दे देते हैं। दस रूपये में तुम्हारा काम चल जाएगा?'
रमा ने सिर झुकाकर कहा, 'हां, इतने बहुत हैं।'
टिकट बाबू को किराया देकर रमा सोचने लगा,यह बूढ़ा कितना सरल, कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कहलाते हैं, उनमें कितने आदमी ऐसे निकलेंगे, जो बिना जान - पहचान किसी यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्र'द्धा की नजरों से देखने लगे। रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक है, कलकत्ता में उसकी शाक-भाजी की दुकान है। रहने वाला तो बिहार का है, पर चालीस साल से कलकत्ता ही में रोजगार कर रहा है। देवीदीन नाम है, बहुत दिनों से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बदरीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।
रमा ने आश्चर्य से पूछा, 'तुम बदरीनाथ की यात्रा कर आए? वहां तो पहाड़ों की बडी-बडी चढ़ाइयां हैं।'
देवीदीन-'भगवान की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी! उनकी दया चाहिए।'
रमानाथ-'तुम्हारे बाल-बच्चे तो कलकत्ता ही में होंगे?'

देवीदीन ने रूखी हंसी हंसकर कहा, 'बाल-बच्चे तो सब भगवान के घर गए। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिए। मैं बैठा हुआ हूं। मुझी से तो सब पैदा हुए थे। अपने बोए हुए बीज को किसान ही तो काटता है!'यह कहकर वह फिर हंसा, ज़रा देर बाद बोला, 'बुढिया अभी जीती हैं। देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊंगी, मैं कहता हूं ,पहले मैं जाऊंगा। देखो किसकी टेक रहती है। बन पडा तो तुम्हें दिखाऊंगा। अब भी गहने पहनती है। सोने की बालियां और सोने की हसली पहने दुकान पर बैठी रहती है। जब कहा कि चल तीर्थ कर आवें तो बोली, 'तुम्हारे तीर्थ के लिए क्या दुकान मिट्टी में मिला दूं? यह है जिंदगी का हाल, आज मरे कि कल मरे, मगर दुकान न छोड़ेगी। न कोई आगे, न कोई पीछे, न कोई रोने वाला, न कोई हंसने वाला, मगर माया बनी हुई है।अब भी एक-न?एक गहना बनवाती ही रहती है। न जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल है। जहां देखो,हाय गहने! हाय गहने! गहने के पीछे जान दे दें, घर के आदमियों को भूखा मारें, घर की चीज़ें बेचेंब और कहां तक कहूं, अपनी आबरू तक बेच दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है। कलकत्ता में कहां काम करते हो, भैया?'

रमानाथ-'अभी तो जा रहा हूं। देखूं कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?'
देवीदीन-'तो फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियां हैं, सामने दालान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूं तो दस हज़ार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूंगा। जब कहीं काम मिल जाय, तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भागकर हाबडे गया था, तब से सुख भी देखे, दुख भी देखे। अब मना रहा हूं, भगवान् ले चलो। हां, बुढिया को अमर कर दो। नहीं, तो उसकी दुकान कौन लेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा!
यह कहकर देवीदीन फिर हंसा, वह इतना हंसोड़, इतना प्रसन्नचित्त था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात की बात पर हंसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं, उस पर उसे हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यों हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन?कथा कह सुनाई, कितने ही लतीफे याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षो की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढ़ंत कथा कहनी पड़ी।
देवीदीन-'तो तुम भी घर से भाग आए हो? समझ गया। घर में झगडा हुआ होगा। बहू कहती होगी,मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास- बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा। रमानाथ-'हां बाबा, बात यही है, तुम कैसे जान गए?
देवीदीन हंसकर बोला,'यह बडा भारी काम है भैया! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लङके-बाले तो नहीं हैं न?'
रमानाथ-'नहीं, अभी तो नहीं हैं।'
देवीदीन-'छोटे भाई भी होंगे?'
रमा चकित होकर बोला,'हां दादा, ठीक कहते हो तुमने कैसे जाना?'
देवीदीन फिर ठटठा मारकर बोला,यह सब कर्मों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों? '
रमानाथ-'हां दादा, है तो।'
देवीदीन-'मगर हिम्मत न होगी।'
रमानाथ-'बहुत ठीक कहते हो, दादा। बडे कम-हिम्मत हैं। जब से विवाह हुआ अपनी लडकी तक को तो बुलाया नहीं।'
देवीदीन--'समझ गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए कहो चोरी करें, भीख मांगें, बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।'
तीन दिन से रमा को नींद न आई थी। दिनभर रूपये के लिए मारा-मारा फिरता, रात-भर चिंता में पडारहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गई। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरंत अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली, और तख्त पर बिछाकर बोला, 'तुम यहां आकर लेट रहो, भैया! मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूं।'
रमा लेट रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आंखों से देखता था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।

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